गुरुवार, अप्रैल 26, 2007

कवियित्री महादेवी वर्मा


दोस्तो,
कवियित्री महादेवी वर्मा पर एक लेख विकिपीडिया मे तैयार हो रहा है..उसके लिये महादेवी वर्मा से सम्बन्धित जानकारी और तस्वीरो की आवश्यकता है..यदि आप भेज सकेँ तो कृपया निम्नलिखित पते पर भेज देँ. सहयोग की आशा रहेगी.

हमारा पता है..

धन्यवाद!

गुरुवार, जून 15, 2006

जुगलबन्दी-03

1.
दीप दीपावली के हज़ारों नये
, मेरी अँगनाई में मुझको घेरे रहे
किन्तु थे वे सभी बातियों के बिना, इसलिये छाये फिर भी अँधेरे रहे
रोशनी की किरण, इस गली की तरफ़, आते आते कहीं पर अटक रह गई
ज़िन्दगी के क्षितिज पर उमड़ते हुए, बस कुहासों के बादल घनेरे रहे

----------------------------------------------राकेश खंडेलवाल, Dated: 6/16/2006 06:27:03 AM.

2.

कोई तो आकर दीप जलाए

दिल में छुपे है घोर अँधेरे
कोई तो आकर दीप जलाए ॥
यादों के साए मीत है मेरे
कोई उन्हें आकर सहलाए ॥

टकरा कर दिल यूँ है बिखरा
तिनका तिनका बन कर उजडा
चूर हुआ है ऐसे जैसे
शीशों से शीशा टकराए॥

चोटें खाकर चूर हुआ जो
जीने पर मजबूर हुआ वो
जीना मरना बेमतलब का
क्या जीना जब दिल मर जाए॥

चाह में तेरी खोई हूँ मैं
जागी हूँ ना सोई हूँ मैं
सपनों में वो आके ऐसे
आँख मिचौली खेल रचाए॥

तेरे मिलन को देवी तरसे
तू जो मिले तो नैना बरसे
कोई तो मन की प्यास बुझाए
काली घटा तो आए जाए॥

----------------------------------------------Devi Nangrani, Dated: Wed, 21 Jun 2006 20:49:15 -0000

शनिवार, मई 06, 2006

जुगलबन्दी-02


1.
नरगिस

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
लहरा कर, सरसरा कर , झीने झीने पर्दो ने,
तेरे, नर्म गालोँ को जब आहिस्ता से छुआ होगा
मेरे दिल की धडकनोँ मेँ तेरी आवाज को पाया होगा
ना होशो ~ हवास मेरे, ना जजबोँ पे काबु रहा होगा
मेरी रुह ने, रोशनी मेँ तेरा जब, दीदार किया होगा !
तेरे आफताब से चेहरे की उस जादुगरी से बँध कर,
चुपके से, बहती हवा�"ँ ने,भी, इजहार किया होगा
फैल कर, पर्दोँ से लिपटी मेरी बाहोँ ने, फिर् , तेरे,
मासुम से चेहरे को, अपने आगोश मेँ, लिया होगा ..
तेरी आँखोँ मेँ बसे, महके हुए, सुरमे की कसम!
उसकी ठँडक मेँ बसे, तेरे, इश्को~ रहम ने,
मेरे जजबातोँ को, अपने पास बुलाया होगा
एक हठीली लट जो गिरी थी गालोँ पे,
उनसे उलझ कर मैँने कुछ �"र सुकुन पाया होगा
तु कहाँ है? तेरी तस्वीर से ये पुछता हूँ मैँ..
आई है मेरी रुह, तुझसे मिलने, तेरे वीरानोँ मैँ
बता दे राज, आज अपनी इस कहानी का,
रोती रही नरगिस क्युँ अपनी बेनुरी पे सदा ?
चमन मेँ पैदा हुआ, सुखन्वर, यदा ~ कदा !!
---------------------------------Lavanya Shah, Dated: Sun, 07 May 2006 19:34:59 -0000


2.

कैसे पलकें उठाऊँ मैं अपनी
आईना देख कर है शरमाया...
---------------------------------Devi Nangrani, Dated: Tue, 09 May 2006 17:50:55 -0000

3.

रात की उँगलियाँ
आँखों पे फिराता था क्यों
चाँद पानी की सतह
पर तैरता था क्यों
वो हसीन ख्वाब आँखों
में सोता था क्यों
जो तस्वीर सचमुच कहीं भी नहीं
उसकी याद में
शब भर रोता था क्यों

---------------------------------Pratyaksha Sinha, Dated: Thu, 10 May 2006 12:30:35 AM

4.

गज़ल: HusN hi Husn
---------------------------------
ऐ हुस्न तेरी शमा यूँ जलती रहे सदा
कैसे दूँ दाद हाथ को, जिसकी तू है शफा.१
सुँदर सी सुरमई तेरी आँखें जो देख ली
पलकें झपक सकी न मैं नज़रें उसे मिला.२
अँगडाइयां है लेता यूं तेरा जवाँ बदन
सिमटाव देखकर तेरा शरमाए आइना.३
पलकें झुकी ही जाती क्यों जब शीशा सामने?
वो बेमिसाल थी तेरी शरमाने की अदा.४
झुकती रही न उठ सकी, झुककर वो एक बार
है लाजवाब हुस्न तू, तेरी गज़ब अना या
सजदा करे ऐ हुस्न! तुझे मेरी ये वफा. ५
जीने की कुछ तो दे मुझे मोहलत ऐ मौत तू
देवी निभा रही सदा, अब तू भी तो निभा.६

---------------------------------Devi Nangrani, Dated: Thu, 11 May 2006 20:47:30 -0000

सोमवार, अप्रैल 17, 2006

जुगलबन्दी-01




१. आस का दामन
----------------------

यकीन की डोर पकड़ कर
आस का दामन छूने की तमन्ना
मेरे इस मासूम से मन को
अब तक है
जो ज़िंदगी की दल दल में
धँसता चला जा रहा है
पर,
सामने सूरज की रौशनी
आस की लौ बनकर
मौत के दाइरे में
जीवन का हाथ थाम रही है.
जब तक सांसें हैं
तब तक जीवन है
�"र,
जीवन अनमोल है.

----------------------- By: Devi Nangrani, Dated: Mon, 17 Apr 2006 20:06:44 -0000

2. माँ, मुझे फिर जनो ....
~~~~~~~~~~~~~~~~~~

" देखो, मँ लौट आया हुँ !
अरब समुद्र के भीतर से,
मेरे भारत को जगाने
कर्म के दुर्गम पथ पर
सहभागी बनाने, फिर,
दाँडी ~ मार्ग पर चलने
फिर एक बार शपथ ले,
नमक , चुटकी भर ही
लेकर हाथ मँ, ले,
भारत पर निछावर होने
मँ, मोहनदास गाँधी,
फिर, लौट आया हूँ ! "

-----------------------By: Lavanya Shah, Dated: Fri, 21 Apr 2006 11:02:42 -0000

3.

मन पानी सा छलक छलक ,
उसमें तैरे ये जीवन
था तपता सूरज जो कभी
चाहें शीतलता अब वो मन

बार बार इच्छाएं पर
अपना हाथ बढ़ाती हैं,
खिंचा चला जाता हूं मोह में,
तृष्णांए मुस्काती हैं

है विदित मुझे,
नहीं समय ये,
आकांक्षाएं सहलाने का
हृदय के नभ के,
एक छोर से
दूजे तक भी जाने का
पर आस का दामन
फैला एसा
जो शक्ति मुझे देता

मैं कृषकाय
और क्षीण सही पर
गान विजय के गाऊंगा,
हाथ बढ़ा कर गिरी शिखर पर
कभी पंहुच तो पाऊंगा

यदि संभव न हो ऐसा
तो क्षोभ नहीं ना कुंठाघात
प्रयत्नों की बलिवेदी पर
रणनायक कहलाऊंगा.
-----------------------By: Renu Ahuja, Dated: Fri, 28 Apr 2006 6:42 AM

बुधवार, अप्रैल 12, 2006

शीर्षक 06 – मेरी छत

1.

( JAGAD GURU SHANKARACHARYA KO NAMAN KARTE HUE : ~~ )
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
AHAM BRAHMASMEE [ Mera Prayas : Lavanya ]
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
Aseem ananta, vyom yehee to Meri chhat hai !
Samaheet Tattva sare, Nirgun ka sthayee aawas -
Haree bhuree Dhartee, vistarit, chaturdik,
Yahee to hai bichona, jo deta mujhe visharam !
Her disha mera aavran , pawan abhushan -
Her GHAR mera jahan path mud jata svatah: mera!
Pathik hoon, path per her dag kee padchap ,
vikal mera her shwaas tumse, aashraya maangta !
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
-Lavanya Shah - Date: Mon Mar 27, 2006 3:35 am
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

2.

छुट गई पीछे
मेरी छत
इस शहर से कोसों दूर
सुदूर मेरे गांव में
जिसके नीचे
न जाने कितने
मधुर यादें पले हैं मेरे
गोधुलि की वेला में
अपने हमजोली के साथ
चिडियों के कलरव के बीच
कल्पना के नाव पर
विचरन करता हुआ
मेरा बचपन
कितने आशियाने बना डाले
अपने ख्वाबों के
अपनापन क अहसास था
उन सबों में
लगता था बस यही दुनियां है
छलप्रपंच, धोखाधडी विहीन
लेकिन महानगर के
इस छत के नीचे
उन्ही बातों का समावेश है
जिनकी कल्पना
मेरा कोमल मन
शायद कर नहीं पाया
कि पग पग पर
पीठ पीछे
पैर खींचने वालों की
तादाद है यहां
अपनत्व की तो बात दूर
यह सोचना भी गुनाह है
इसलिए फिर से
वही जाने की चाह है
उसी छत के नीचे
जो वास्तव में
मेरी छत है
इस शहर से दूर
सुदूर मेरे गांव में

---------------------------- निर्भीक प्रकाश- Date: Tue Mar 28, 2006 2:03 pm

3.

मेरी छत
वहाँ से शुरु होती है
जहाँ से तुम्हारी
ज़मीन
खत्म होती है

रौशनी का
एक गोल टुकडा
बरस जाता है
किरणे बुन लेती हैं
अपनी दीवार

और हमारा घर
धूप ,साये, परिंदो
और बादल से
होड लगाता
झूम जाता है
हमारी आँखों में

---------------------------- प्रत्यक्षा सिन्हा - Date: Tue Mar 28, 2006 12:33 pm

4.

समझ के बाहर है
खेल मन की सियासत का,
मन की सोच का जंगल भी
किसी सियासत से कम नहीं,
कभी तो ताने बाने बुनकर
एक घरौंदा बना लेती है
जहां उसका अस्तित्व
आश्रय पा जाता है,
या, कहीं फिर
अपनी ही असाधारण सोच
के नुकीलेपन से
अपना आशियां उजाड़ देती है.
होश आता है
उस बेहोश सोच को
जब लगता है उसे
पांव तले धरती नहीं
और वो छत भी नहीं
जो एक चुनरी की तरह
ढांप लेती है मान सन्मान.
मन की सियासत! उफ!!
यह सोच भी शतरंज की तरह
बिछ जाती है
जहां उसूलों की पोटली भर कर
एक तरफ रख देते हैं हम
और सियासत के दाइरे में
पांव पसार लेते है,
जहां पहनावा तो नसीब होता है
पर छत नहीं.
हां! वो स्वाभिमान को
महफूज़ रखने वाली छत,
वो ज़मीर को जिंदा रखकर
जीवन प्रदान करने वाली छत,
जिसकी छत्र छाया में
सच पलता है
हां! सच सांस लेता है.

---------------------------- देवी नागरानी - Date: Tue Mar 28, 2006 11:13 pm

5.

मेरे दो चित्र:

आखिर क्यूँ
-----------
//१//

क्यूँ बिछडा संबध
ध्वनि तरंग बन
स्पंदित कर
रक्त धारा को छूता है

मेरी छत के नीचे
दीवारों के अजनबी
सायों के बीच
जब कोई और नही होता
तब यही अहसास
मुझे हर पल होता है.


//२//

सूरज क्यूँ इतना तपता है
मेरा अंग अंग सब जलता है
पहले सा सूरज लगता है
पर कितनी तेज चमकता है.

मेरी छत न जाने कहाँ गई
छांव पाने को दिल मचलता है
माँ! तू जबसे दूजे जहां गई
ये घर बिन छत का लगता है.

---------------------------- समीर लाल - Date: Wed Mar 29, 2006 7:10 am

6.

कभी कभी इच्छा होती है,
अपनें पाँवो के नीचे की
जमीन को खिसका कर
वहाँ तक ले आँऊ
जहाँ से तुम्हारी छत
शुरु होती है ।

वो जमीन
जिस पर मेरे पाँव
अब भी टिके हुए हैं
और जिस पर हम नें
मिल कर ख्वाब देखे थे,

वो हसीन ख्वाब आज भी
अगरबत्ती की तरह सुलग रहे है,
पता नहीं खुशबु
तुम्हारी छत तक
पहुँची या नहीं ?

---------------------------- अनूप भार्गव - Date: Wed Mar 29, 2006 5:46 am

7.

मेरे सिरहाने लगी
जो जमीन है
उसे ही तुमने छत कहा
हाँ
जो मेरे सर पर है
वह तुम्हारे पांवोंके नीचे
और जब वह नीचे है
मेरे सर के
बनकर सिरहाना
वह तब भी
तुम्हारे पाँव तले है
तुम ठीक ही
मेरी छत को
अपने पांव की जमीन कहते हो
और अब मैं
ढूँढ़ रही हूँ
छत का अर्थ

---------------------------- मैत्रेयी अनुरूपा - Date: Wed Mar 29, 2006 11:26 pm

8.

निगाहों से मेरी वो ढूंढो मेरी छत
अरे कोई ढूंढो मेरी छत, मेरी छत.

चली जाने कैसी विदूषित हवाएं
उड़ा के चली वो मेरी छत, मेरी छत.

पनाह पा रहा था जो दामन वहीं पर
उड़ा के चली वो मेरी छत, मेरी छत.

अहसास से जो बुने ताने बाने
उठाके चली वो मेरी छत, मेरी छत.

पलकों पे अश्कों के मोती बिखेरे
बहाके चली वो मेरी छत, मेरी छत.

कहते सुना देवी हम सब है भाई
हां! मैके चली वो मेरी छत, मेरी छत.

---------------------------- देवी नागरानी - Date: Sat Apr 1, 2006 2:32 am

9.

jag bauna hai
sapney oonchey
meri chhat ke neechey
sab jhoothey hain
sapney sachhey
meri chhat ke neechey

din andhiyaaley
raatein ujali
meri chhat ke neechey
sawan bin badal
bin bijali
meri chhat ke neechey

jab tum aatey
dhar gin-gin pag
meri chhat ke neechey
tum sang banata
surabhit pag-mag
meri chhat ke neechey

preet bhara mann
thodi an-ban
meri chhat ke neechey
maadak madhu bin
bauraye mann
meri chhat ke neechey

virahakul ki
kaatar chitwan
meri chhat ke neechey
abhisaar ras
gupchup gopan
meri chhat ke neechey

seemit ghadiyaan
amit laalasa
meri chhat ke neechey
laghutam jeewan
gurutam asha
meri chhat ke neechey

chand shabd mein
vyaapak antar
meri chhat ke neechey
kala sarovar
kavita nirjhar
meri chhat ke neechey

itna kuchh
kaise sim-ta hai
meri chhat ke neechey
nishchit koi
kavi bas-ta hai
meri chhat ke neechey

---------------------------- Jaya Pathak - Date: Tue Apr 4, 2006 3:35 pm

10.

"ये सब हुआ'

प्रकृति का प्यार पला
मेरी छत के नीचे।
उस प्यार ने सींचे
छोटे-छोटे फूल
मेरी छत के नीचे।
आंगन खिलने लगा
बहार छाने लगी
बयार चलने लगी
मेरी छत के नीचे।
बच्चे हंसने लगे
फुदकने लगे
पंछी गाने लगे
मेरी छत के नीचे।
अपना असर देखकर
हैरान था,चकित था प्यार
हां, ये सब हुआ
मेरी छत के नीचे।

---------------------------- मधु अरोरा - Date: Fri Apr 7, 2006 7:07 pm

11.

Meri chhat ke neeche
kamaron ke batware huye
ek - ek kamaron ki banayi gayi
chhadm pehchan
sabake liye gadhi gayi
chhadm paribhasayen.......!

Meri chhat ke neeche
jal ke shrot vibhakta huye
un vibhajit shroto mein
laal rang bhi ghule
un shroto ki raksha ke liye
gathit huyi senayen.......!

Meri chhat ke neeche
malik murt roop mein puje gaye
malik ko awaz lagayi
malik ki prarthna huyi
alag alag guton mein
alag alag chole odhkar.....!

Meri chhat ke neeche
har kamaron mein
hawaon mein tyoharon ke rang ghule
bachchon ki kilkariyan uthi
maa-shishu sa sambadh ubhara
kamaron ki seemaon se upar uthkar....!

Meri chhat ke neeche
dhara awak hai
ye sab dekhkar........!

---------------------------- Shyam Jha - Date: Tue Apr 11, 2006 10:17 am







बुधवार, मार्च 22, 2006

शीर्षक 05 – मैं और तुम

1.
जैसी नदिया की धारा
ढूँढे अपना, किनारा,
जैसे तूफ़ानी सागर मे,
माँझी, पाये किनारा,
जैसे बरखा की बदली,
जैसे फ़ूलों पे तितली,
सलोने पिया, मोरे
सांवरिया,
वैसे मगन, मै और तुम.
लिपटी जैसे बेला की
बेल,
ऊँचे घने पीपल को घेर,
जैसे तारों भरी रात,
चमक रही चंदा के साथ,
मेरे आंगन मे चाँदनी,
करे चमेली से ये बात,
सलोने पिया, मोरे
सांवरिया,
भयले मगन, मै और तुम.

------------------------------- लावण्या शाह - Wed Mar 15, 2006 6:00 am
2.
तुम
समन्दर का एक किनारा हो
मैं एक प्यास लहर की तरह
तुम्हें चूमनें के लिये
उठता हूँ ,

तुम तो चट्टान की तरह
वैसी ही खड़ी रहती हो
मैं ही हर बार तुम्हें
बस छू के
लौट जाता हूँ ,
मैं ही हर बार तुम्हें
बस छू के
लौट जाता हूँ ।

------------------------------- अनूप भार्गव - Thu Mar 16, 2006 3:13 am

3.
मैं तुम हम

मेरे और तुम्हारे बीच
एक गर्म लावा
दहकता है
कहो तो
बर्फ के कुछ फूल
खिला दूँ यहाँ
फिर उस पर
पाँव पाँव रखकर
मैं आ जाऊँगी
तुम तक
मेरे बढे हाथों को
थाम लोगे तुम
चुनकर कुछ अँगारे
कुछ फूल
भर देना
मेरी हथेलियों के �"क में
मैं फूँक मार कर
समेट लूँगी सब
तुम्हारे लिये
फिर न मैं रहूँगी
न तुम रहोगे
सिर्फ हम रहेंगे
सिर्फ हम

------------------------------- प्रत्यक्षा सिन्हा - Fri Mar 17, 2006 9:37 am

4.
मैं
चला था
सफ़र में योंहि
नितांत अकेला
भटकते राहों में
दूर दूर तक
न था कोई हमसफ़र
जिससे बांट सकूं
अपनी भावनाओं को
और बांट लू उनके
सारे दर्द को
अचानक मिली तुम
और तुम्हारा कोमल स्पर्श
जिसकी गर्माहट पाकर
प्रफूल्लित हो गया मैं
और जाना सफ़र में
हमसफ़र का मतलब
मगर मुझे क्या पता था
कि तुम एक बसंती बयार हो
जो अपनी महकती खुसबू देकर
चली जाती है दूर
बहुत दूर
मैं और तुम को
नदी के दो किनारे बनाकर
फिर से राह में
मैं को अकेला छोड


------------------------------- निर्भीक प्रकाश - Fri Mar 17, 2006 1:55 pm

5.
हे प्रियतम
अद्भुत छवि बन
सुन्दरतम

बसे हो तुम
मन मन्दिर मे
आराध्य बन

भ्रमर जैसे
पागल बन ढूँढू
मैं पुष्पवन

तुम झरना
मैं इंद्रधनुष के
रंगीन कण

चंचलता मैं
ज्यों अल्ह्ड लहर
सागर तुम

तुम विशाल
अनंत युग जैसे
मैं एक क्षण

हो तरुवर
अडिग धीर स्थिर
मैं हूं पवन

जैसे ललाट
पर कोरी बिन्दिया
सजे चन्दन

हे प्रियतम...

------------------------------- मानोशी चैट्रर्जी - Sat Mar 18, 2006 12:44 am

6.
निस्पंद
और
निष्प्राण
मैं
और
तुम
निश्छल स्वछंद बहती
शीतल बयार

तुम्ही से है मुझमे
प्राणों का संचार

तुम्ही हो मेरे जीवन
का आधार.

------------------------------- समीर लाल - Mon Mar 20, 2006 7:29 am

7.
"मैं" और "तुम" की
अजब दास्तां है।
जब तक अलग हैं
"हम" की कशिश
करती है बेकरार।
"हम" होते ही
अचानक एक दिन
"मैं" और "तुम"
उठा लेते हैं अपना फन।
"हम" रहता है बिसूरता
रात-दिन है सोचता
कहाँ गये ?
वे कशिश भरे दिन
हे "मैं" और "तुम!"
प्लीज, हटा लो ये दीवार
"हमें" जी लेने दो यार।

------------------------------- मधु अरोरा - Sun Mar 19, 2006 6:35 pm

8.
तुम्हें याद है
चिन्टू के लिये मैं
उसका घोङा
जो हर शाम उसको
अपनी पीठ पर बैठाकर
पूरे
५-६ चक्कर
लगाया करता था

और तुम
एक खूबसूरत परी
जो उसकी
हर फरमाईश
पूरी करती थी

आज शायद
हम दोनो
उसके लिये
स्टोर रूम में पङी
पुरानी चीज़ों से
कुछ ज्यादा नहीं

------------------------------- संगीता मनराल - Mon Mar 20, 2006 5:44 pm

9.
मैं और तुम
तुम और मैं
क्या अर्थ है इन शब्दों का ?
हम कब बँटे ?
मैं और तुम मेंं
आद्या प्रकॄति
अर्ध नारीश्वर
और सॄष्टि की संरचना
सब हमी से हुई
तुम और मैं से नहीं
तो फिर आज
क्यों करें हम
हम का विभाजन
तुम और मैं में ?

------------------------------- मैत्रेयी अनुरूपा - Mon Mar 20, 2006 10:52 pm

10.
पहचान तेरी है मुझसे मानो
मेरी भी तो तुमसे जानो
अनजान सी इस राह पे भी
कैसे दोनों है हमजोली...
मैं और तुम़।

दामन तूने मेरा थामा
मैंने भी तो तेरा थामा
साथ रहे संग दोनों ऐसे
जैसे दामन चोली...
मैं और तुम।

तुमजो देखो मुझको हसकर
मैं भी तो हस देती तुमपर
तेरी उदासी, मेरी उदासी
मन से दोनों भोला भोली...
मैं और तुम।

रूप मैं तेरा तू है मेरा
जैसी तू है वैसी ही मैं
आईना बन सौत खडा क्यों
तेरे मेरे बीच सहेली...
मैं और तुम।

रूप सजे जो तेरा देवी
मैं भी सजी हूं सुंदर वैसी
देख के दर्पण मैं शरमाऊं
खेले है मन ज्यूं रंगोली...
मैं और तुम।

------------------------------- देवी नागरानी - Tue Mar 21, 2006 12:24 am

11.
उस दिन,
मेरे घर से निकलते ही बन्टू छींका
थोड़ा आगे गया तो बिल्ली ने रास्ता काटा
मैं ये सब मानता नहीं था
सो चलता रहा

उसी दिन,
मेरी तुमसे पहली मुलाकात हुई
अब मैं कट्टर अन्धविश्वासी हूं...

------------------------------- नीरज त्रिपाठी - Fri, 24 Mar 2006, 22:34:23

शीर्षक 04 – अनकही यादे

1.
चेहरे के चन्दन वन से जब, आँखों
की गंगा बहती है
अनुभूत हॄदय के पल सारे, तब
सौरभ से भर जाते हैं

संचय तो क्षीण नहीं होता आँसू
का भी, पीड़ा का भी
सुधियों के दावानल में कुछ
पड़ने लगती आहुतियां भी
शैशव भावों की उंगली को जब नहीं
थामता चित्र कोई
टूटे शीशे की किरचों से वे बिखर
बिखर रह जाते हैं

सिसकी के रोली अक्षत से अभिषेक
स्वरों का होता है
सुबकी के विस्तॄत अंबर में आशा
का पंछी खोता है
घनघोर ववंडर यादों के जब जीवन
की जर्जर नौका
को घेरा करते, धीरज के टुकड़े
टुकड़े हो जाते हैं

एकाकीपन के विषधर की रह रह
कुंडली कसा करती
स्मॄतियां पंख कटी कोई
गौरेय्या सी बन कर रहती
खिड़की के धुंधले शीशे से छनती
संध्या की किरणों के
दीवारों पर बनते साये सहसा
गहरे हो जाते हैं

------------------------------- गीतकार - Tue Feb 28, 2006 10:52 pm

2.
Kisse kehtee ? kaun sune ?
umadateen rehteen jo mann mein,
Neer bhuree badlee see ,
birhan ki, wo ankahee yaadein !

Bhogee jo her Urmila ne
paashan vat Ahilya ne ~~
Shakuntala ne, jo Van mei,
Her Maa ne, prasav peeda mein !
wo ankahee yaadein !

Kaise Aashru ko koyee samjhaye ?
Kaise mann ke bhaavon ko dikhlaye?
Aisa Vaani mei samarthya kahan ?
Jo Rangon ko bol ker darshaye ?
AAh ! Ye, ankahee yaadein !

Reh jaateen hain ankahee hee
Laakh samjhane per bhee,
Kitnee hee Bheeshma pratigya see,
Dhartee ke garbh mein dabee dabee
bhavi ke ankur see, "ANKAHEE YAADEIN "

------------------------------- Lavanya Shah - Tue Feb 28, 2006 9:11 pm

3.
पीले झरते पत्तों पर
चल कर देखा कभी ?
फिर अपने पाँव देखे क्या ?
तलवों पर याद छोडती है
अपने अंश,
लाल आलते सी
छाती में उठती कोई हूक
रुलाई सी
जब फूटती भी नहीं
तब समझ लेना
कोई अनकही याद
फिर तुम्हारे आँचल का कोना
पकड कर खींचेगी.
तुम तैयार तो हो
न भी हो तो क्या
पाँव के नीचे झरे पत्ते हैं
और ऊपर
किसी दरख्त का पुख्ता शाख

------------------------------- प्रत्यक्षा सिन्हा - Wed Mar 1, 2006 2:56 pm

4.
Smriti ke pichhwaade-
baitha hoon jo yaado.n ke aangan,
kabhi jhenp-sa jaata hoon,
kabhi koi muskaan gujar-si jaati hai

kishor-man ka pehla sapna youvan ka
pratham-prem ka hriday dhadakna
chori-chhupe shararati nazaro.n ka
yahan dekhna, wahan ghoorna
Yaado.n ke aise, man me angin jo saaye hain
meri naitikta ki bandish ne
unko jaane kitne aansoo rulaaye hain
chhod samajik paimaano.n ki chadar
jo aaj nagn main baitha hoon...
swatwa poorna nirmal ho aaya
swabhavikta ko jas-ka-tas paaya hai

yaadein ye akathniya rahi hain
shayad ankahi hi.n reh jaayengi
Aur tod jo paayi bediyaa.n
gudgudi laga fir jaayengi

------------------------------- Vivek Thakur - Thu Mar 2, 2006 2:23 am

5.
यादों की जो खोली पोटली
आँखें भर आईं,हो गईं गीली।
इन आँखों में उभर आये
बीते मीठे लमहे।
कई बार सोचा विचारा
ये लमहे पा जाते शब्द
ज़िन्दगी हो जाती पार
न होती दूभर; दुष्कर।
एक बात बताओ
मेरे भूतकाल के दोस्त,
तुम भी तो खोल सकते थे
खुद के मन को मेरे सामने।
हम दोनों की चुप्पी ने
समा दिये सारे सपने
अनकही यादों में।

------------------------------- मधु अरोरा - Thu Mar 2, 2006 5:18 pm

6.
यादें हैं कुछ अनकही
सी

चंद घडियों की वो
साथी
मेरी यादों से ना
जाती
बातें हैं पुरानी
लेकिन
उन साँसों की गरमी की
तासीर है कुछ नई नई सी.

उसकी छन्न हँसी
भोलापन
शोख चूडियाँ
खन्न-खना-खन्न
गीतों की दूनियाँ है
लेकिन
उस पायल की सरगम की
धुन
ज़ेहन मे कुछ बसी बसी सी.

मुस्कान लिए ये होंठ हमारे
अरमान लिए हर काज हमारे
सारी खुशीयाँ मयस्सर
लेकिन
आँखों की पलकों के
नीचे
हल्की सी कुछ नमीं
नमीं सी.

किस्मत मे तुम नही हमारी
तुझको सोचूं खता हमारी
ना ज़ाने क्यूँ फ़िर भी
लेकिन
उन लम्हों की भीनी
यादें
लगती हैं कुछ अनकही सी.

------------------------------- समीर लाल - Fri Mar 3, 2006 8:49 am

7.
मुझे आज भी
अपनी किताबों से भरी
अलमारी के सामने
तुम्हारा बिंम्ब
नजर
आने लगता है
जहाँ तुम अपने
पँजों के बल पर
उचककर
किताबों के ढेर में
अपनी पंसदीदा
किताब को तलाशते
घंटों बिता
देती थी
और मैं तुम्हारी
ऐङी पर पङी
गहरी, फटी
दरारों को
देखता रहता

------------------------------- संगीता मनराल - Fri Mar 3, 2006 11:25 am

8.
सालों बीत जाने के बाद भी
तुम्हारी मनमोहक हंसी का
वह अदभुत पल
जिसको जिया था मैनें
अपने आप में
बिना इजहार किए
अपने भावनाओं को
कभी कभी टीस देती है
दिल में अचानक
एक अनकही यादें बनकर
न जाने कैसे बीत गए
इतने साल
उसी सुनहरी यादों के
मखमली पलनों में पलकर
जिसको कह न पाया
अब तक तुम्हें
और कह न पाउं
मगर
वही अनकही यादें
यादें बनकर रहेगी
जिन्दगी भर
तुम्हारे लिए

------------------------------- निर्भीक प्रकाश - Fri Mar 3, 2006 5:18 pm

9.
गुज़रती रहीं शामें
वो ढेरों अनकही बातें
और उन बातों के
किसी कोने में
छुपे लम्हों से
चुन कर रख लेना मेरा
इक छोटा सा पराग
खुश्बू उसकी चुपके से
देती थी जो मधुर अहसास
उन सपनीले पलों में
वो कुछ चुप पल,
कुछ कहने की कोशिश
और फिर इक लम्बी साँस,
जो बात कही नहीं थी कभी
और कह गयी सब कुछ
रोना भी सीखा चुपके से और
हँस कर छुपा लेना मन उदास
कुछ धीरे से कह जाना
और फिर कहना "कुछ नहीं"
और ऒढ लेना फिर से
चुप्पी का लिबास
उन ढेर सारी बातों में
उन बिना मिली मुलाकातों में
बन्द रह गये बँध कर
जाने कितने अहसास

------------------------------- मानोशी चैट्रर्जी - Sun Mar 5, 2006 12:54 am

10.
स्मॄतियों की मंजूषा में भूली
भटकी कुछ यादें हैं
सूखे फूल किताबों में सी वादों
वाली भी यादें हैं
कभी जिया है सोचा भी है, और
उन्हें महसूसा मैने
पर न कहा न बाँटा जिनको वे
अनकही मेरी यादें हैं...

------------------------------- राकेश खंडेलवाल - Wed Mar 8, 2006 1:27 am

11.
गये पतझङ में
मैं तुम्हारे
आँगन मे खङे
पीपल के
पीले गिरे पत्तों से
चुनकर
एक सूखा पत्ता
उठा लाया था
वो
आज भी
मेरे पास
मेरी पसंदीदा
किताब के
पेज नम्बर २६
के बीच पङा
मुझे
परदेस में
तुम्हारा
प्यार देने को
सुरक्षित है

------------------------------- संगीता मनराल - Thu Mar 9, 2006 2:45 pm

12.
मूक जुबान, कुछ
कहने कि कोशश में है,
फिर भी व्यक्त करने में नाकाबिल
नहीं बता पाती उन अहसासों को
जो उमड़ घुमड़ कर
यादों के सागर से
उस जु़बां के अधर पर
आ तो जाते है,
पर अधूरी सी भाषा में
कुछ अनकही दास्तां, बिना कहे
अपूर्णता के भाव लिये
चुपी को ओढ लेते है
शायद इसलिये, वो जज़बात की
सुन्हरी यादों के मोती है
बस अनमोल यादों के मोती है़
जो यादों की सीप में जा बसे हैं

------------------------------- देवी नागरानी - Thu Mar 9, 2006 5:57 pm