बुधवार, मार्च 22, 2006

शीर्षक 01 – वक़्त जो थम सा गया

1.
भीगी साड़ी के कोने से
रिसते पानी में,
तिरते है अनबिंधे शब्द
और एक छोटा सा
जलाशय बन जाता है,
फिर वही पानी बहते-बहते
ढलान के कोने पर रुक जाता है,
सूरज की किरणे उसे उठा कर
एक नई कहानी लिखतीं हैं,
पर्वतों के पार से आती पुरवाई
फिर तुम्हारा नाम लेती है,

वक्त जैसे थम सा जाता है,
अमलतास के गुँचों में बँधी
सूर्य किरण सा खिल जाता है ।

------------------------------- रजनी भार्गव - Fri Jan 20, 2006 12:11 am

2.
वो शाम
आज तक याद है मुझे
जब तुम्हारे
प्रथम आलिंगन ने
ये अहसास कराया था
की प्रेम
शायद वासना से ऊपर
उस हिमालय पर बैठे
शिव सा स्थिर और पवित्र है

वो वक्त
थम सा गया
मेरी जिन्दगी मे
और मैं उसे
अपने जीवन का
सत्य मानकर
सांसे लेती रही

आज जब तुम्हें
देखती हूँ
किसी और के
वक्त का हिस्सा
बनते हुऐ
तब वही वक्त जो
थम गया था
मेरे लिए
मेरी कल्पना को
सहारा देने
मुझे
मुँह् चिढाता है

------------------------------- संगीता मनराल - Sat Jan 28, 2006 2:05 pm

3.
"वक़्त आज कुछ थम सा गया है
एक पल ने जो खींच ली है लगाम
डर कर ये कुछ सहम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है

साँस रुक रुक कर चल रही है
मौत भी दहलीज़ पर ही खड़ी है
फिर भी ज़िन्दगी ज़िद पर अड़ी है
दिल कुछ यहाँ रम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है

धूआं भी तो नहीं उठ रहा कहीं
जल रहा क्यों फिर आंखों में पानी
बहता भी नहीं कमबख्त अब यहीं
कोरों पर आकर जम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है

फ़फ़क कर रोने की तो आदत नहीं
रोने से भी मिलती कोई राहत नहीं
आपसे हमको कभी मुहब्बत नहीं
कह कर लगा कोई मरहम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है"

------------------------------- मानोशी चैट्रर्जी - Tue Jan 31, 2006 12:55 pm

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

a very good work,