बुधवार, मार्च 22, 2006

शीर्षक 05 – मैं और तुम

1.
जैसी नदिया की धारा
ढूँढे अपना, किनारा,
जैसे तूफ़ानी सागर मे,
माँझी, पाये किनारा,
जैसे बरखा की बदली,
जैसे फ़ूलों पे तितली,
सलोने पिया, मोरे
सांवरिया,
वैसे मगन, मै और तुम.
लिपटी जैसे बेला की
बेल,
ऊँचे घने पीपल को घेर,
जैसे तारों भरी रात,
चमक रही चंदा के साथ,
मेरे आंगन मे चाँदनी,
करे चमेली से ये बात,
सलोने पिया, मोरे
सांवरिया,
भयले मगन, मै और तुम.

------------------------------- लावण्या शाह - Wed Mar 15, 2006 6:00 am
2.
तुम
समन्दर का एक किनारा हो
मैं एक प्यास लहर की तरह
तुम्हें चूमनें के लिये
उठता हूँ ,

तुम तो चट्टान की तरह
वैसी ही खड़ी रहती हो
मैं ही हर बार तुम्हें
बस छू के
लौट जाता हूँ ,
मैं ही हर बार तुम्हें
बस छू के
लौट जाता हूँ ।

------------------------------- अनूप भार्गव - Thu Mar 16, 2006 3:13 am

3.
मैं तुम हम

मेरे और तुम्हारे बीच
एक गर्म लावा
दहकता है
कहो तो
बर्फ के कुछ फूल
खिला दूँ यहाँ
फिर उस पर
पाँव पाँव रखकर
मैं आ जाऊँगी
तुम तक
मेरे बढे हाथों को
थाम लोगे तुम
चुनकर कुछ अँगारे
कुछ फूल
भर देना
मेरी हथेलियों के �"क में
मैं फूँक मार कर
समेट लूँगी सब
तुम्हारे लिये
फिर न मैं रहूँगी
न तुम रहोगे
सिर्फ हम रहेंगे
सिर्फ हम

------------------------------- प्रत्यक्षा सिन्हा - Fri Mar 17, 2006 9:37 am

4.
मैं
चला था
सफ़र में योंहि
नितांत अकेला
भटकते राहों में
दूर दूर तक
न था कोई हमसफ़र
जिससे बांट सकूं
अपनी भावनाओं को
और बांट लू उनके
सारे दर्द को
अचानक मिली तुम
और तुम्हारा कोमल स्पर्श
जिसकी गर्माहट पाकर
प्रफूल्लित हो गया मैं
और जाना सफ़र में
हमसफ़र का मतलब
मगर मुझे क्या पता था
कि तुम एक बसंती बयार हो
जो अपनी महकती खुसबू देकर
चली जाती है दूर
बहुत दूर
मैं और तुम को
नदी के दो किनारे बनाकर
फिर से राह में
मैं को अकेला छोड


------------------------------- निर्भीक प्रकाश - Fri Mar 17, 2006 1:55 pm

5.
हे प्रियतम
अद्भुत छवि बन
सुन्दरतम

बसे हो तुम
मन मन्दिर मे
आराध्य बन

भ्रमर जैसे
पागल बन ढूँढू
मैं पुष्पवन

तुम झरना
मैं इंद्रधनुष के
रंगीन कण

चंचलता मैं
ज्यों अल्ह्ड लहर
सागर तुम

तुम विशाल
अनंत युग जैसे
मैं एक क्षण

हो तरुवर
अडिग धीर स्थिर
मैं हूं पवन

जैसे ललाट
पर कोरी बिन्दिया
सजे चन्दन

हे प्रियतम...

------------------------------- मानोशी चैट्रर्जी - Sat Mar 18, 2006 12:44 am

6.
निस्पंद
और
निष्प्राण
मैं
और
तुम
निश्छल स्वछंद बहती
शीतल बयार

तुम्ही से है मुझमे
प्राणों का संचार

तुम्ही हो मेरे जीवन
का आधार.

------------------------------- समीर लाल - Mon Mar 20, 2006 7:29 am

7.
"मैं" और "तुम" की
अजब दास्तां है।
जब तक अलग हैं
"हम" की कशिश
करती है बेकरार।
"हम" होते ही
अचानक एक दिन
"मैं" और "तुम"
उठा लेते हैं अपना फन।
"हम" रहता है बिसूरता
रात-दिन है सोचता
कहाँ गये ?
वे कशिश भरे दिन
हे "मैं" और "तुम!"
प्लीज, हटा लो ये दीवार
"हमें" जी लेने दो यार।

------------------------------- मधु अरोरा - Sun Mar 19, 2006 6:35 pm

8.
तुम्हें याद है
चिन्टू के लिये मैं
उसका घोङा
जो हर शाम उसको
अपनी पीठ पर बैठाकर
पूरे
५-६ चक्कर
लगाया करता था

और तुम
एक खूबसूरत परी
जो उसकी
हर फरमाईश
पूरी करती थी

आज शायद
हम दोनो
उसके लिये
स्टोर रूम में पङी
पुरानी चीज़ों से
कुछ ज्यादा नहीं

------------------------------- संगीता मनराल - Mon Mar 20, 2006 5:44 pm

9.
मैं और तुम
तुम और मैं
क्या अर्थ है इन शब्दों का ?
हम कब बँटे ?
मैं और तुम मेंं
आद्या प्रकॄति
अर्ध नारीश्वर
और सॄष्टि की संरचना
सब हमी से हुई
तुम और मैं से नहीं
तो फिर आज
क्यों करें हम
हम का विभाजन
तुम और मैं में ?

------------------------------- मैत्रेयी अनुरूपा - Mon Mar 20, 2006 10:52 pm

10.
पहचान तेरी है मुझसे मानो
मेरी भी तो तुमसे जानो
अनजान सी इस राह पे भी
कैसे दोनों है हमजोली...
मैं और तुम़।

दामन तूने मेरा थामा
मैंने भी तो तेरा थामा
साथ रहे संग दोनों ऐसे
जैसे दामन चोली...
मैं और तुम।

तुमजो देखो मुझको हसकर
मैं भी तो हस देती तुमपर
तेरी उदासी, मेरी उदासी
मन से दोनों भोला भोली...
मैं और तुम।

रूप मैं तेरा तू है मेरा
जैसी तू है वैसी ही मैं
आईना बन सौत खडा क्यों
तेरे मेरे बीच सहेली...
मैं और तुम।

रूप सजे जो तेरा देवी
मैं भी सजी हूं सुंदर वैसी
देख के दर्पण मैं शरमाऊं
खेले है मन ज्यूं रंगोली...
मैं और तुम।

------------------------------- देवी नागरानी - Tue Mar 21, 2006 12:24 am

11.
उस दिन,
मेरे घर से निकलते ही बन्टू छींका
थोड़ा आगे गया तो बिल्ली ने रास्ता काटा
मैं ये सब मानता नहीं था
सो चलता रहा

उसी दिन,
मेरी तुमसे पहली मुलाकात हुई
अब मैं कट्टर अन्धविश्वासी हूं...

------------------------------- नीरज त्रिपाठी - Fri, 24 Mar 2006, 22:34:23

शीर्षक 04 – अनकही यादे

1.
चेहरे के चन्दन वन से जब, आँखों
की गंगा बहती है
अनुभूत हॄदय के पल सारे, तब
सौरभ से भर जाते हैं

संचय तो क्षीण नहीं होता आँसू
का भी, पीड़ा का भी
सुधियों के दावानल में कुछ
पड़ने लगती आहुतियां भी
शैशव भावों की उंगली को जब नहीं
थामता चित्र कोई
टूटे शीशे की किरचों से वे बिखर
बिखर रह जाते हैं

सिसकी के रोली अक्षत से अभिषेक
स्वरों का होता है
सुबकी के विस्तॄत अंबर में आशा
का पंछी खोता है
घनघोर ववंडर यादों के जब जीवन
की जर्जर नौका
को घेरा करते, धीरज के टुकड़े
टुकड़े हो जाते हैं

एकाकीपन के विषधर की रह रह
कुंडली कसा करती
स्मॄतियां पंख कटी कोई
गौरेय्या सी बन कर रहती
खिड़की के धुंधले शीशे से छनती
संध्या की किरणों के
दीवारों पर बनते साये सहसा
गहरे हो जाते हैं

------------------------------- गीतकार - Tue Feb 28, 2006 10:52 pm

2.
Kisse kehtee ? kaun sune ?
umadateen rehteen jo mann mein,
Neer bhuree badlee see ,
birhan ki, wo ankahee yaadein !

Bhogee jo her Urmila ne
paashan vat Ahilya ne ~~
Shakuntala ne, jo Van mei,
Her Maa ne, prasav peeda mein !
wo ankahee yaadein !

Kaise Aashru ko koyee samjhaye ?
Kaise mann ke bhaavon ko dikhlaye?
Aisa Vaani mei samarthya kahan ?
Jo Rangon ko bol ker darshaye ?
AAh ! Ye, ankahee yaadein !

Reh jaateen hain ankahee hee
Laakh samjhane per bhee,
Kitnee hee Bheeshma pratigya see,
Dhartee ke garbh mein dabee dabee
bhavi ke ankur see, "ANKAHEE YAADEIN "

------------------------------- Lavanya Shah - Tue Feb 28, 2006 9:11 pm

3.
पीले झरते पत्तों पर
चल कर देखा कभी ?
फिर अपने पाँव देखे क्या ?
तलवों पर याद छोडती है
अपने अंश,
लाल आलते सी
छाती में उठती कोई हूक
रुलाई सी
जब फूटती भी नहीं
तब समझ लेना
कोई अनकही याद
फिर तुम्हारे आँचल का कोना
पकड कर खींचेगी.
तुम तैयार तो हो
न भी हो तो क्या
पाँव के नीचे झरे पत्ते हैं
और ऊपर
किसी दरख्त का पुख्ता शाख

------------------------------- प्रत्यक्षा सिन्हा - Wed Mar 1, 2006 2:56 pm

4.
Smriti ke pichhwaade-
baitha hoon jo yaado.n ke aangan,
kabhi jhenp-sa jaata hoon,
kabhi koi muskaan gujar-si jaati hai

kishor-man ka pehla sapna youvan ka
pratham-prem ka hriday dhadakna
chori-chhupe shararati nazaro.n ka
yahan dekhna, wahan ghoorna
Yaado.n ke aise, man me angin jo saaye hain
meri naitikta ki bandish ne
unko jaane kitne aansoo rulaaye hain
chhod samajik paimaano.n ki chadar
jo aaj nagn main baitha hoon...
swatwa poorna nirmal ho aaya
swabhavikta ko jas-ka-tas paaya hai

yaadein ye akathniya rahi hain
shayad ankahi hi.n reh jaayengi
Aur tod jo paayi bediyaa.n
gudgudi laga fir jaayengi

------------------------------- Vivek Thakur - Thu Mar 2, 2006 2:23 am

5.
यादों की जो खोली पोटली
आँखें भर आईं,हो गईं गीली।
इन आँखों में उभर आये
बीते मीठे लमहे।
कई बार सोचा विचारा
ये लमहे पा जाते शब्द
ज़िन्दगी हो जाती पार
न होती दूभर; दुष्कर।
एक बात बताओ
मेरे भूतकाल के दोस्त,
तुम भी तो खोल सकते थे
खुद के मन को मेरे सामने।
हम दोनों की चुप्पी ने
समा दिये सारे सपने
अनकही यादों में।

------------------------------- मधु अरोरा - Thu Mar 2, 2006 5:18 pm

6.
यादें हैं कुछ अनकही
सी

चंद घडियों की वो
साथी
मेरी यादों से ना
जाती
बातें हैं पुरानी
लेकिन
उन साँसों की गरमी की
तासीर है कुछ नई नई सी.

उसकी छन्न हँसी
भोलापन
शोख चूडियाँ
खन्न-खना-खन्न
गीतों की दूनियाँ है
लेकिन
उस पायल की सरगम की
धुन
ज़ेहन मे कुछ बसी बसी सी.

मुस्कान लिए ये होंठ हमारे
अरमान लिए हर काज हमारे
सारी खुशीयाँ मयस्सर
लेकिन
आँखों की पलकों के
नीचे
हल्की सी कुछ नमीं
नमीं सी.

किस्मत मे तुम नही हमारी
तुझको सोचूं खता हमारी
ना ज़ाने क्यूँ फ़िर भी
लेकिन
उन लम्हों की भीनी
यादें
लगती हैं कुछ अनकही सी.

------------------------------- समीर लाल - Fri Mar 3, 2006 8:49 am

7.
मुझे आज भी
अपनी किताबों से भरी
अलमारी के सामने
तुम्हारा बिंम्ब
नजर
आने लगता है
जहाँ तुम अपने
पँजों के बल पर
उचककर
किताबों के ढेर में
अपनी पंसदीदा
किताब को तलाशते
घंटों बिता
देती थी
और मैं तुम्हारी
ऐङी पर पङी
गहरी, फटी
दरारों को
देखता रहता

------------------------------- संगीता मनराल - Fri Mar 3, 2006 11:25 am

8.
सालों बीत जाने के बाद भी
तुम्हारी मनमोहक हंसी का
वह अदभुत पल
जिसको जिया था मैनें
अपने आप में
बिना इजहार किए
अपने भावनाओं को
कभी कभी टीस देती है
दिल में अचानक
एक अनकही यादें बनकर
न जाने कैसे बीत गए
इतने साल
उसी सुनहरी यादों के
मखमली पलनों में पलकर
जिसको कह न पाया
अब तक तुम्हें
और कह न पाउं
मगर
वही अनकही यादें
यादें बनकर रहेगी
जिन्दगी भर
तुम्हारे लिए

------------------------------- निर्भीक प्रकाश - Fri Mar 3, 2006 5:18 pm

9.
गुज़रती रहीं शामें
वो ढेरों अनकही बातें
और उन बातों के
किसी कोने में
छुपे लम्हों से
चुन कर रख लेना मेरा
इक छोटा सा पराग
खुश्बू उसकी चुपके से
देती थी जो मधुर अहसास
उन सपनीले पलों में
वो कुछ चुप पल,
कुछ कहने की कोशिश
और फिर इक लम्बी साँस,
जो बात कही नहीं थी कभी
और कह गयी सब कुछ
रोना भी सीखा चुपके से और
हँस कर छुपा लेना मन उदास
कुछ धीरे से कह जाना
और फिर कहना "कुछ नहीं"
और ऒढ लेना फिर से
चुप्पी का लिबास
उन ढेर सारी बातों में
उन बिना मिली मुलाकातों में
बन्द रह गये बँध कर
जाने कितने अहसास

------------------------------- मानोशी चैट्रर्जी - Sun Mar 5, 2006 12:54 am

10.
स्मॄतियों की मंजूषा में भूली
भटकी कुछ यादें हैं
सूखे फूल किताबों में सी वादों
वाली भी यादें हैं
कभी जिया है सोचा भी है, और
उन्हें महसूसा मैने
पर न कहा न बाँटा जिनको वे
अनकही मेरी यादें हैं...

------------------------------- राकेश खंडेलवाल - Wed Mar 8, 2006 1:27 am

11.
गये पतझङ में
मैं तुम्हारे
आँगन मे खङे
पीपल के
पीले गिरे पत्तों से
चुनकर
एक सूखा पत्ता
उठा लाया था
वो
आज भी
मेरे पास
मेरी पसंदीदा
किताब के
पेज नम्बर २६
के बीच पङा
मुझे
परदेस में
तुम्हारा
प्यार देने को
सुरक्षित है

------------------------------- संगीता मनराल - Thu Mar 9, 2006 2:45 pm

12.
मूक जुबान, कुछ
कहने कि कोशश में है,
फिर भी व्यक्त करने में नाकाबिल
नहीं बता पाती उन अहसासों को
जो उमड़ घुमड़ कर
यादों के सागर से
उस जु़बां के अधर पर
आ तो जाते है,
पर अधूरी सी भाषा में
कुछ अनकही दास्तां, बिना कहे
अपूर्णता के भाव लिये
चुपी को ओढ लेते है
शायद इसलिये, वो जज़बात की
सुन्हरी यादों के मोती है
बस अनमोल यादों के मोती है़
जो यादों की सीप में जा बसे हैं

------------------------------- देवी नागरानी - Thu Mar 9, 2006 5:57 pm

शीर्षक 03 – थकान

1.
करते करते काम कभी गर तुम थक जाओ
कार्यालय की कुर्सी पर चौड़े हो जाओ

ऐसे सोओ सहकर्मी भी जान न पाएं
रहे ध्यान आफिस में न खर्राटे आएं

ऐसा हो अभ्यास बैठे बैठे सो जाओ
कुम्भकरण को तुम अपना आदर्श बनाओ

जागो तब ही झकझोरे जब कोई हिलाए
पलक झपकते ही निन्नी रानी आ जाए

ऐसे लो जम्हाई कि दूजे भी अलसाएं
आंख बन्द करते तुमको खर्राटे आएं

अपने पैर पसार के लेओ चादर तान
जीवन की आपाधापी में जब भी लगे थकान

------------------------------- नीरज त्रिपाठी - Wed Feb 15, 2006 3:33 pm

शीर्षक 02 – खिङकियाँ

1.
इतने ऊँचे महल हैं सारे
बात करते हैं आसमां से
बहुत दूर तक दिखता है
जब झांकते हैं हम यहाँ से
इन शानों शॊकत के सब मालिक
दिखते हैं हरदम हैरां से
खिङकियाँ सभी बंद रहतीं
ताजी हवा भला आये कहाँ से

------------------------------- समीर लाल - Sun Jan 29, 2006 9:06 am

2.
लाल बिंदी
जो तुमने लगा दी थी
एक बार
उँगली को गोल
भौंहो के ठीक बीच
बडे एहतियात से
फिर थाम कर
मेरा चेहरा
निहारा था
मंत्रमुग्ध
आज सूरज
बन कर
धूप का गोल टुकडा
सज जाता है
मेरे माथे पर
खुली खिडकी से
तुम झाँकते हो अंदर
मैं पेशोपेश में
सोचती हूँ
तुम हो
या कोई ढीठ सूरज
जो रंग रहा है
मेरे कपोलों को
बेधडक, शैतानी से

------------------------------- प्रत्यक्षा सिन्हा - Mon Jan 30, 2006 4:38 pm

3.
मैं अनजान था
शायद

मेरी दुनियाँ के घरों कि
खिङकियों पर हमेशा
एक झीना,रुपहेला
परदा टंगा रहता था

उसकी
दूसरी तरफ
तेरी छवि
कुछ धुंधली
नजर आने पर भी
मुझे पहचान में
आती रही

तू अक्सर
किसी अप्सरा की तरह
अचानक से आकर
फिर
बोझिल हो जाती

और तब मैं उसे
अपनी नींद में
आने वाले किसी
सुखद सपने की तरह
भूलकर
फिर काम मे लग जाता

मुझे याद है
शायद मैं गलत नहीं
ये सिलसिला
तब तक चला
जब तक उन
खिडकियों पर
वो झीने रुपहले पर्दे थे

------------------------------- संगीता मनराल - Mon Feb 13, 2006 4:51 pm

शीर्षक 01 – वक़्त जो थम सा गया

1.
भीगी साड़ी के कोने से
रिसते पानी में,
तिरते है अनबिंधे शब्द
और एक छोटा सा
जलाशय बन जाता है,
फिर वही पानी बहते-बहते
ढलान के कोने पर रुक जाता है,
सूरज की किरणे उसे उठा कर
एक नई कहानी लिखतीं हैं,
पर्वतों के पार से आती पुरवाई
फिर तुम्हारा नाम लेती है,

वक्त जैसे थम सा जाता है,
अमलतास के गुँचों में बँधी
सूर्य किरण सा खिल जाता है ।

------------------------------- रजनी भार्गव - Fri Jan 20, 2006 12:11 am

2.
वो शाम
आज तक याद है मुझे
जब तुम्हारे
प्रथम आलिंगन ने
ये अहसास कराया था
की प्रेम
शायद वासना से ऊपर
उस हिमालय पर बैठे
शिव सा स्थिर और पवित्र है

वो वक्त
थम सा गया
मेरी जिन्दगी मे
और मैं उसे
अपने जीवन का
सत्य मानकर
सांसे लेती रही

आज जब तुम्हें
देखती हूँ
किसी और के
वक्त का हिस्सा
बनते हुऐ
तब वही वक्त जो
थम गया था
मेरे लिए
मेरी कल्पना को
सहारा देने
मुझे
मुँह् चिढाता है

------------------------------- संगीता मनराल - Sat Jan 28, 2006 2:05 pm

3.
"वक़्त आज कुछ थम सा गया है
एक पल ने जो खींच ली है लगाम
डर कर ये कुछ सहम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है

साँस रुक रुक कर चल रही है
मौत भी दहलीज़ पर ही खड़ी है
फिर भी ज़िन्दगी ज़िद पर अड़ी है
दिल कुछ यहाँ रम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है

धूआं भी तो नहीं उठ रहा कहीं
जल रहा क्यों फिर आंखों में पानी
बहता भी नहीं कमबख्त अब यहीं
कोरों पर आकर जम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है

फ़फ़क कर रोने की तो आदत नहीं
रोने से भी मिलती कोई राहत नहीं
आपसे हमको कभी मुहब्बत नहीं
कह कर लगा कोई मरहम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है"

------------------------------- मानोशी चैट्रर्जी - Tue Jan 31, 2006 12:55 pm